नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा
वर्तमान समय में नैतिक एवं आध्यत्मिक शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में सदैव इस ओर ध्यान दिया गया था। फलस्वरूप ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना व्याप्त थी। सभी भारतीय परस्पर मिल-जुलकर शांति के साथ रहते थे। उनका आध्यात्म से पूर्ण लगाव था। वे नैतिक जीवन जीते थे। वे ‘तेन व्यक्त भुळजीया’ (अर्थात् त्याग के साथ भोग हो) में विश्वास करते थे। नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के कारण जीवन सदाचार से परिपूर्ण था।
किन्तु वर्तमान समय में त्याग की बात ही नहीं है केवल भोग ही भोग है और इस भोग ने मानव को खोखला बना दिया है। जीवन मूल्य नष्ट हो रहे हैं। ‘मैं और मेरा परिवार बस यही मेरा संसार’ की भावना घर करती जा रही है। आज संसार को कुटुम्ब के रूप में नहीं बल्कि ‘बाजार’ के रूप में देखा जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि ने उपभोक्ता की आत्मा का शोषित किया है। भूमण्डलीकरण के बुलडोजर ने मानवीय नैतिक मूल्यों को कुचल डाला है। बुद्धि के दिवालियापन ने धर्म एवं आध्यात्मक को अफीम समझना शुरू कर दिया है। फलस्वरूप नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का पतन होने लगा है।
नैतिक एवं आध्यात्मिकता शिक्षा के सदाचार भी सम्मिलित है। सदाचार का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। इसमें प्रेम, सेवा, क्षमा, उदारता, धैर्य, दानशीलता, दया, परोपकार, अहिंसा, दान, पुण्य इत्यादि सभी शुभ कर्म आ जाते हैं तथा झूठ, छल, द्वेष, घृणा, क्रोध, भय, स्वार्थ, कुसंग व रिश्वत इत्यादि दुगुणों के त्याग की भावना सदैव रहती है। सदाचारी मानव आयु अरोग्यता, प्रीति, धन, धर्म एवं हर प्रकार के ऐश्वर्य भी प्राप्त करता है।
परन्तु मनुष्य अनुकरणप्रिय प्राणी है। जैसा देखेगा और सुनेगा, वैसा ही करने लगेगा। समाज को सुधारना ही व्यक्ति को सुधारना है। बालकों की समुचित शिक्षा-दिीक्षा न होना, उन्हें नैतिक ढाँचे में न ढालना आदि दोष व्यक्ति मात्र के नहीं हो सकते, समाज का ही दोष है। आज झूठ बोलकर, छल व धोखा देकर धनवान बन जाने पर भी, समाज में उनका सम्मान होता है। वहीं दूसरी ओर सज्जन और ईमानदार व्यक्ति के पेट भरने की यथोचित व्यवस्था भी नहीं होती। इस प्रकार के अनेक कारण कम बुद्धि वाले लोगों में अनैतिकता पूर्ण बातें भर देते है। इमें इन्हीं अनैतिकता पूर्ण बातों को लोगों के मस्तिष्क से निकालना होगा।
आध्यात्म का वास्तविक अर्थ अत्यधिक व्यापक और गहरा है। आध्यात्म का संबंध नैतिकता और मानव कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है। आध्यात्म और नैतिकता एक-दूसरे में समाहित है। संक्षिप्त तौर पर आध्यात्म का अर्थ उन आचरणों, कत्तव्यों व कर्मों के व्यवहार से है जो नैतिकता से युक्त मानव कल्याण और विकास से जुड़े हो अर्थात् नैतिकता के अभाव में कर्त्तव्य, सत्कर्म आदि अधूरे है। प्रत्येक आध्यात्म का एक पक्ष नैतिकता से संबंधित है और यहीं अध्यात्म की मूलभूत एकता का हेतु है।
परन्तु आधुनिक युग में नैतिक एवं आध्यात्म और उसके रक्षक- संसृर्द्धक तत्वों का पूर्णतया झास बल्कि अंत ही हो चुका है। नैतिकता एवं आध्यात्मिकता किन चिड़ियाओं का नाम होता है या हो सकता है, आम-खास किसी को इसका अहसास या ज्ञान तक नहीं रहा गया हैं। इसका मुख्य कारण स्वतंत्रता प्राप्त करने वाली पीढ़ी के समाप्त हो जाने के बाद मचने वाली लूट-पाट, आपाधापी औ आदर्शहीनता ही है। इससे भी बड़ा कारण है उस तरह का राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा का सर्वधा अभाव जो नैतिकता एवं आध्यत्मिकता और नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा का महत्व इस तथ्य से भली भाँति परिचित रहते हुए भी सर्वथा भुला दिया गया कि राष्ट्र निर्माण के लिए देश में नैतिक एवं आध्यात्मिक जागृति होना अत्यन्त आवश्यक है।
आध्यात्मक का मूलभूत सिद्धान्त है मानव आत्मा की एकता को पहचानना। प्राणी मात्र में एकता, समानता स्वतंत्रता एवं उदारता आध्यात्मक के मूलभूत आधार है। प्राचीन मनीषी अज्ञात पर विश्वास कर ज्ञज्ञत की ओर बढ़ते रहे। परिणामतः उन्होंने आध्यात्म शब्द को प्रमाण रूप से स्वीकार कर लिया जिसे आजकल की नई पीढ़ी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
हमारे पुराणों में भी धर्म (आध्यात्म) से संबंधित अनेक श्लोक उल्लेखित हैं। उनमें से दो निम्नलिखित है-
(1) धर्मादर्यः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत्।।
अर्थ- धर्म से धन होता है। धर्म से सुख होता है। मनुष्य धर्म से सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म ही जगत् का सार है।
(2) धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्योमा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
अर्थ- पालन न किया गया धर्म ही मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया गया धर्म उसकी रक्षा करता हैं। अतः धर्म को नष्ट नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट हुआ धर्म हमें न कर डाले।
(3) वैशेषिकसूत्रम् में भी उल्लेखित है-
यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः।
अर्थ- जिससे अभ्युदय (लौकिक उत्थान) और निःश्रेयस (परम कल्याण) की सिद्धि होती है, वहीं धर्म (आध्यात्म) है।
कभी भारत का सारे संसार में जो गुरूवत् मान सम्मान किया जाता था, वह उसके उदात मानवीय मूल्यों के कारण ही किया जाता था। लेकिन आज देश-विदेश सभी जगह प्रत्येक स्तर पर भारतीयता को हेय, त्याज्य माना जाने लगा है। उसकी आवाज का कहीं कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं रह गया। इन सभी विषमताओं पर नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करके ही विजय पायी जा सकती हैं। राष्ट्र निर्माण के लिए देश में अधिक से अधिक नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना अत्यन्त आवश्यक है। अधिक से अधिक विद्यालयों में किताबी ज्ञान के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। देश के प्रत्येक नागरिक को इस अभियान में अपना सहयोग देना होगा वरना देश का पतन होने में समय नहीं लगेगा।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली (जो लार्ड मैकाले की देन है) में भारतीय संस्कृति के अनुकूल आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है। शिक्षा में नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा का समावेश करना वर्तमान समय की माँग है। धर्म आध्यात्म व्यक्ति को सदाचारी बनाता है। सदाचारी व्यक्ति नैतिकतापूर्ण जीवन व्यापन करता है। नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त मनुष्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ में विश्वास करता है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भदाणि पश्यन्तु, माकश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।।